Description
Vani Publications Gandhi Aur Saraladevi Chaudhrani Barah Adhyay by Alka Saraogi
‘‘अब यह बिछड़ना और अधिक कठिन लगने लगा है। जिस जगह तुम बैठती थी, उस ओर मैं देखता हूँ और उसे ख़ाली देखकर अत्यन्त उदास हो जाता हूँ।’’ —27 अप्रैल 1920 को गांधी लिखते हैं। जिस सरलादेवी चौधरानी की बौद्धिक प्रतिभा और देश की आज़ादी के यज्ञ में ख़ुद को आहुति बनाने का संकल्प देख गांधी ने अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ का दर्जा दिया, उसका नाम इतिहास के पन्नों में कहाँ दर्ज है? जिस सरलादेवी की शिक्षा और तेजस्विता से मुग्ध हो स्वामी विवेकानन्द उसे अपने साथ प्रचार करने विदेश ले जाना चाहते थे, उसे इतिहास ने बड़े नामों का गल्प लिखते समय हाशिये पर भी जगह क्यों नहीं दी? कलकत्ता के जोड़ासांको के टैगोर परिवार की संस्कृति में पली-बढ़ी सरलादेवी ने अपने मामा रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ ‘वन्देमातरम्’ की धुन बनायी, यह किसने याद रखा? इन प्रश्नों का उत्तर शायद एक स्त्री के स्वतन्त्रचेता होने और सवाल उठाने पर उसे दरकिनार किये जाने में है। गांधी के आसपास के लोगों को सरलादेवी के प्रति गांधी का हार्दिक प्रेम उनकी ब्रह्मचारी-सन्त की छवि के लिए ख़तरा लगा। ख़ुद गांधी को असहयोग आन्दोलन पर सरला के उठाये सवाल सहन न हुए। चुभते हुए सवाल सरला ने बार-बार किये: कांग्रेस ने औरतों को क़ानून तोड़ने के लिए आगे रखा, क़ानून बनाते वक़्त क्यों नहीं? अलका सरावगी का उपन्यास सौ साल पहले घटे जलियाँवाला बाग़ के समय के उन विस्मृत किरदारों की एक गाथा है जो इतिहास की धूप-छाँव के बीच अपनी जगह बनाने में, अपने रूपक की तलाश में नये अध्याय रचते हैं। ऐसे ही बारह अध्यायों की एक कहानी है गांधी और सरलादेवी चौधरानी की।